जब लोग गा रहे थे
पानी के गीत
हम सपनों में देखते थे
प्यास भर पानी।
समुद्र था भी
रेत का इतराया
पानी देखता था
चेहरों का
या फिर
चेहरों के पीछे छुपे
पौरूष का ही
मायने था पानी।
तलवारें
बताती रहीं पानी
राजसिंहासन
पानीदार के हाथ ही
रहता रहा तब तक।
अब जब जाना
पानी वह नहीं था
दम्भ था निरा
बंट चुका था
दुनिया भर का पानी
नहीं बंटी
हमारी अपनी थी
आज भी थिर है
थार में प्यास।
पानी के गीत
हम सपनों में देखते थे
प्यास भर पानी।
समुद्र था भी
रेत का इतराया
पानी देखता था
चेहरों का
या फिर
चेहरों के पीछे छुपे
पौरूष का ही
मायने था पानी।
तलवारें
बताती रहीं पानी
राजसिंहासन
पानीदार के हाथ ही
रहता रहा तब तक।
अब जब जाना
पानी वह नहीं था
दम्भ था निरा
बंट चुका था
दुनिया भर का पानी
नहीं बंटी
हमारी अपनी थी
आज भी थिर है
थार में प्यास।
bhot hi badhiya bhaisa....sunder blog
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण रचनावां...शानदार ब्लॉग.............
जवाब देंहटाएंप्रणाम !
जवाब देंहटाएंनए ब्लॉग से परिचय करवाने का आभार ! '' थिर है अभी थार में पानी '' तीन द्रश्यों में पानी को चित्रित कर दिया . कही रेगिस्तान के आँचल में , कही पौरुष रूप में तो एक जामने में पानी के लिए ठाकुरों के कुवो पे होती जंग में ! मगर पानी अभी भी थिर है .! साधुवाद
सादर !
ओम पुरोहित जी कई वर्ष पहले सूरतगढ़ में रहा हूँ और आपसे शायद भेंट भी हुई है, बहुत अच्छा लगा आज आपका ब्लाग देख कर।
जवाब देंहटाएंwww.vyomkepar.blogspot.com
तलवारें
जवाब देंहटाएंबताती रहीं पानी
राजसिंहासन
पानीदार के हाथ ही
रहता रहा तब तक।
भावपूर्ण प्रस्तुति.... सुंदर रचना.....
Om jee , aapki rachna ,aapka blog uttam hai . bahut prabhvi va sundar shaili , aapko shubhkamna
जवाब देंहटाएंAapki lekhan-shaili prabhavit karti hai , sundar blog bhi hai , achchha laga aapko padhana.
जवाब देंहटाएंaapke blog per pehli baar aaye hooh accha laga hamara teesra blog kyun nahi dekh sake aap bataye hum dakhte hai kya samasya hai?
जवाब देंहटाएंkhoobsoorat post
जवाब देंहटाएंBahut sundar rachna, aabhar.
जवाब देंहटाएंयह सम्मान की बात हे की आपको "श्री छोटी-खाटू हिंदी पुस्तकालय" द्वारा २०११ का महा कवी कन्हैया लाल सेठिया मायड़ भाषा सम्मान दिया जायेगा |
जवाब देंहटाएंमेने आपके बारे में थोडा यंहा लिखा हे ,मार्गदर्शन के लिए पधारे |
http://vijaypalkurdiya.blogspot.com/2011/10/blog-post.html
"नहीं बंटी
जवाब देंहटाएंहमारी अपनी थी
आज भी थिर है
थार में प्यास।"
अनुपम !
राजस्थान की संस्कृति उतर आई है आपकी कविता में
जवाब देंहटाएंरचना अच्छी लिखी है।
जवाब देंहटाएंओम जी
जवाब देंहटाएंबहुत ही जानदार रचना ... वाकई राजस्थान की मिट्ठी की खुशभू है आपकी कविता में ..
बधाई .
अब जब जाना
जवाब देंहटाएंपानी वह नहीं था
दम्भ था निरा
बंट चुका था
दुनिया भर का पानी
नहीं बंटी
हमारी अपनी थी
आज भी थिर है
थार में प्यास।
.....समय के साथ इंसान कितना बदल जाता है पर यदि कुछ नहीं बदलता है तो वह प्रकृति का स्वभाव।
बहुत बढ़िया रचना